नई दिल्ली : भारत के घुड़सवारों ने एक अद्वितीय कहानी को जीवन में बदल दिया है, जब उन्होंने चीन से अपने यहां घोड़ों को लाने की अनुमति नहीं पाई और इसके परिणामस्वरूप वे दो या उससे अधिक वर्षों से यूरोप में रहने को मजबूर हुए। इन घुड़सवारों ने शहर से दूर जंगल जैसे इलाकों में अकेले रहकर खुद के लिए खाना बनाना सीखा और घुड़ों की भी सेवा की।
सुदीप्ति हजेला (इंदौर), दिव्याकृति सिंह (जयपुर), विपुल ह्रदय छेड़ा (मुंबई), और अनुश अगरवाला (कोलकाता) की कहानी दर्द और संघर्ष से भरपूर है। एक समय था जब इन घुड़सवारों के लिए एशियाड में भाग लेना संभावना भी नहीं था। इन घुड़सवारों को यूरोप जाने की इजाज़त नहीं मिली थी और वे अपने सपनों को पूरा करने के लिए यहां रुके थे। इसके बावजूद, इन घुड़सवारों ने अपने प्रयासों और त्याग के माध्यम से स्वर्ण पदक प्राप्त किया।
इन घुड़सवारों के पिता मुकेश हजेला ने बताया कि यह स्वर्ण पदक उनके बच्चों की महान तपस्या का परिणाम है। इन घुड़सवारों ने भारतीय घुड़सवारी महासंघ (ईएफआई) के सहायता से इस कठिनाई भरे सफर पर कदम रखा।
जर्मनी में सात दिन क्वारंटाइन
इन घुड़सवारों को यूरोप जाने की इजाज़त मिलने के बाद, उन्हें जर्मनी में सात दिन की क्वारंटाइन में रहना पड़ा। इसके बाद उन्होंने तैयारियों में जुट जाने का फैसला किया और अपने घुड़ों के साथ प्रैक्टिस की।
बेटी को नहीं बताईं तकलीफें
मुकेश ने बताया कि इस सफर के लिए उन्होंने जमीन गिरवी रखकर लोन लिया, लेकिन कभी भी अपनी बेटी को इस बारे में नहीं बताया, ताकि उस पर किसी तरह का दबाव न पड़े।
राजेश पट्टू बोले कल्पना से परे है स्वर्ण जीतना
कर्नल राजेश पट्टू, जो तीन बार अर्जुन अवार्ड से सम्मानित हैं, कहते हैं कि इन घुड़सवारों ने अद्वितीय प्रदर्शन किया है। उन्हें यह महसूस हो रहा है कि जिन हालातों में इन घुड़सवारों ने तैयारियों की है और जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा, उसमें स्वर्ण पदक जीतना कल्पना से भी परे है।
घुड़सवारी में ड्रेसेज का घोड़ा सबसे महंगा होता है, और अच्छे घुड़े की कीमत एक करोड़ रुपये से भी अधिक हो सकती है।
इन घुड़सवारों की कड़ी मेहनत, संघर्ष, और त्याग ने भारत के लिए स्वर्ण पदक जीतने का सपना हकीकत में बदल दिया है, और उनकी कहानी हम सबको प्रेरित करने वाली है।