Yogi Modi and Shah

Face of Modi: क्या केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ख़ुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित कर लिया है? पिछले दिनों अविश्वास बहस के दौरान संसद में शाह ने जिस तरह के तेवर दिखाए, उससे तो यही लगा। वह आत्मविश्वास से लबरेज एक जुझारू नेता नज़र आ रहे थे।

शाह (Amit Shah) लंबे समय से मोदी के सबसे करीबी सिपहसालार रहे हैं। उन्होंने शुरुआत कारोबारी के तौर पर की। पहले अपने पिता का केमिकल बिजनेस चलाया। फिर स्टॉक ब्रोकिंग और उसके बाद सहकारी बैंकिंग में चले गए। आखिर में 1987 में बीजेपी में शामिल हुए और प्रभावशाली नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। दिलचस्प बात यह है कि पीएम मोदी ने भी अपना सियासी सफर उसी साल शुरू किया था।

मोदी की तरह शाह भी पार्टी में तेज़ी से उभरे। मोदी अक्टूबर 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने। कई लोग समझते हैं कि 2002 में गोधरा कांड के बाद शुरू हुए दंगों के दौरान शाह गुजरात के गृह मंत्री थे। लेकिन, ऐसा था नहीं। उस समय राज्य का गृह मंत्रालय गोरधन जदाफिया के पास था। शाह ने उस साल के अंत में गृह राज्य मंत्री और एक दर्जन अन्य विभागों का कार्यभार संभाला।

शाह का सियासी सफर विवादों से भरा रहा। सोहराबुद्दीन शेख कथित फेक एनकाउंटर मामले में जुलाई 2010 में कांग्रेस के अगुवाई वाली यूपीए सरकार के दौरान उन्हें जेल में भी डाला गया। हत्या, जबरन वसूली और तस्करी में शामिल एक गैंगस्टर था सोहराबुद्दीन। पुलिस ने उस पर पाकिस्तान की जासूसी एजेंसी इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) और आतंकी समूह लश्कर-ए-तैयबा के साथ संबंध रखने का आरोप लगाया। सोहराबुद्दीन नवंबर 2005 में गुजरात-राजस्थान पुलिस की संयुक्त टीम के साथ मुठभेड़ में मारा गया।

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इस एनकाउंटर मामले में शाह ने साबरमती सेंट्रल जेल में तीन महीने बिताए। उन्हें अक्टूबर 2010 में जमानत मिली। बाद में विशेष अदालत ने ‘सबूतों के अभाव’ में शाह को सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले से बरी कर दिया। इस मामले में आरोपी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी भी सबूतों के अभाव में छूट गए।

हालांकि, विपक्ष उन्हें लगातार कथित इस्लामी आतंकियों के सिलसिलेवार पुलिस एनकाउंटर के लिए जिम्मेदार ठहराता रहा है। ये सभी एनकाउंटर उस वक़्त हुए थे, जब शाह गुजरात में मोदी की अगुवाई वाली सरकार में गृह राज्य मंत्री के रूप में काम कर रहे थे।

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में शाह ने ख़ुद को एक हद तक लाइम लाइट से दूर रखा। बीजेपी अध्यक्ष के रूप में उन्होंने पार्टी चलाई, जबकि सरकार चलाने की जिम्मेदारी मोदी ने संभाली। लेकिन, दूसरे कार्यकाल में शाह ने गृह मंत्री का ओहदा संभाला और सबको अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति से वाकिफ कराया। जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने और नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) पास कराने जैसे कुछ चर्चित फैसले हैं, जिनके पीछे शाह थे।

लेकिन, फरवरी 2020 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान शाह जिस तरह से शाहीन बाग में सीएए प्रदर्शनकारियों और दिल्ली दंगों से निपटे, उसकी कड़ी आलोचना हुई। वामंपथियों के साथ दक्षिणपंथियों ने भी शाह को निशाने पर लिया, भले ही दोनों के लिए वजहें अलग-अलग थीं।

फिर जब एक महीने बाद कोविड ने भारत पर हमला किया, तो शाह को 30 दिनों में तीन बार अस्पताल में भर्ती कराया गया। उन्हें पूरी तरह रिकवर करने में वक़्त लगा। उसके बाद तीन राज्यों- पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में बीजेपी की हार हो चुकी है। इससे शाह की चुनावी जादूगरी वाली छवि को भी धक्का लगा है।

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इस बीच 2022 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) ने बीजेपी को लगातार दूसरी बार सूबे में सत्ता दिलाई। योगी के उदय ने मोदी युग के बाद राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए शाह बनाम योगी मुक़ाबले की संभावना भी बढ़ा दी है।

हालांकि, बीजेपी अपने नेताओं का चुनाव इस तरह नहीं करती। साथ ही, अभी मोदी युग की समाप्ति का भी कोई संकेत नहीं मिल रहा। मोदी ने 15 अगस्त को लाल क़िले से दिए गए भाषण समेत सभी हालिया सार्वजनिक संबोधनों में स्पष्ट किया कि निकट भविष्य में प्रधानमंत्री वही रहेंगे।

बीजेपी आलाकमान ने लंबे समय से ‘अच्छे सिपाही-बुरे सिपाही’ की नीति अपनाई है। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, उन्होंने ख़ुद ‘अच्छे सिपाही’ की भूमिका निभाई। वह नपे-तुले अंदाज़ में सबको साथ लेकर चलने की बात करते थे। वहीं, उनके केंद्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने ‘बुरे पुलिस वाले’ की भूमिका निभाई और कट्टर हिंदुत्व की पैरोकारी की।

मोदी-शाह की जोड़ी भी इसी फॉर्म्युले पर चल रही। मोदी वैश्विक राजनेता के रूप में अपनी छवि गढ़ रहे। पश्चिम एशिया में मुस्लिम नेताओं के साथ खाना खा रहे। भारत में पसमांदा मुसलमानों को लुभाते रहे। वहीं, शाह कट्टर हिंदुत्व पर अड़े हुए हैं।

संसद में अविश्वास बहस के दौरान शाह ने बेहद सधा हुआ भाषण दिया। इसी से अगले दिन ‘भ्रष्ट और वंशवादी विपक्ष’ के ख़िलाफ़ मोदी के जोरदार समापन भाषण की नींव तैयार हुई। शाह के लंबे भाषण में तथ्यों पर मजबूत पकड़ दिखी। उन्होंने बिना झुंझलाहट के तीखे मुद्दे उठाए।

उस दिन की शुरुआत में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने गुस्से और तंज भरे लहजे में भाषण दिया। लेकिन, शाह का नपा-तुला स्वर राहुल के भाषण के ठीक उलट था। यही वजह है कि आलोचकों ने मोदी के बाद के युग में शाह को एक संभावित उत्तराधिकारी के रूप में देखा, वह युग चाहे जब भी आए।

भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में हालिया सुधारों के पीछे भी शाह का ही हाथ माना जा रहा। पुरानी न्याय प्रणाली अंग्रेज़ों के जमाने की थी, जिसमें भारतीय जनता के बजाय ब्रिटिश हुकूमत के हितों का खयाल अधिक रखा गया था। जाहिर है, जैसे-जैसे 2024 का लोकसभा चुनाव नजदीक आएगा, शाह की नैशनल प्रोफाइल भी बढ़ती जाएगी।

अब सवाल उठता है कि योगी का क्या होगा? क्या राष्ट्रीय राजनीति में चमकने की उनकी योजना को शाह के उभरने से झटका लग सकता है? शायद ऐसा ना हो, लेकिन योगी को अभी थोड़ा इंतज़ार करना होगा। फिलहाल, उनके लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता 2027 का विधानसभा चुनाव रहेगा।

एक सवाल यह भी है कि अगर मोदी 2024 का लोकसभा चुनाव जीतते हैं, तो क्या वह प्रधानमंत्री के तौर पर चौथा कार्यकाल चाहेंगे? अगर उन्हें चौथा कार्यकाल मिलता है, तो उसके आखिर में उनकी उम्र 83 साल हो जाएगी। शाह अभी 58 और योगी 51 साल के हैं। 2034 में शाह 69 साल के होंगे, योगी 62 साल के।

अगले 11 साल में बहुत कुछ हो सकता है। राजनीति में किसी भी चीज़ की गारंटी नहीं होती। कांग्रेस को भी नकारा नहीं जा सकता, ना ही विपक्ष को कमतर आंका जा सकता है। बीजेपी में ही तमिलनाडु के नेता के. अन्नामलाई जैसे नौजवान सितारे हैं, जो तेज़ी से आगे बढ़ सकते हैं।

लेकिन, जब मोदी-शाह का डबल इंजन निष्क्रिय हो जाएगा, तो क्या शाह-योगी इंजन सक्रिय हो सकता है? अगर ऐसा होता है, तो यह आज चाहे कितना भी नामुमकिन लगे, शाह फिर वाजपेयी वाले राजनेता के सांचे में ढल जाएंगे। वहीं, योगी उस कठोर दक्षिणपंथी पदवी को संभाल लेंगे, जो कभी आडवाणी, मोदी और शाह के पास हुआ करती थी।

By khabarhardin

Journalist & Chief News Editor